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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम


महान् विचारक अरस्तू ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'नीतिशास्त्र' में एक स्थानपर एक बड़ी मार्मिक बात लिखी है। वे कहते है कि संसारमें श्रेष्ठतम मार्ग मध्यका ही मार्ग (Doctrine of mean) है। वे कहते हैं कि सद्गुण और दुर्गुणमें केवल अतिका अन्तर है। सद्गुण दो अतिथियोंके मध्यकी स्थिति को कहते हैं। अति (Excess) जिस ओरको हो जायगी, वही दुर्गुण बन जायगा, चाहे वह अच्छाईकी अति हो अथवा बुराईकी।

उदाहरणके लिये यदि हम अपनी आयकी अपेक्षा अधिक व्यय करें, व्यय अतिकी स्थितिमें पहुँच जाय, तो वह अपव्यय (फिजूलखर्ची) कहलायेगा। यदि हम आयसे बहुत कम व्यय करें और अपनी स्थायी आवश्यकताओंकी भी अवहेलना करते चलें, तो वह कृपणता (कंजूसी) कहलायेगी। यदि इन दोनों अतियों- अपव्यय तथा कृपणताके भध्यका मार्ग ग्रहण कर लें, तो वह मितव्ययिता नामक सद्गुण बन जायगा। तनिक-सी कमी या आधिक्य सद्गुणको दुर्गुणमें बदल देगा। यही नियम प्रत्येक गुण या अवगुणके विषयमें लागू होता है।

साहस नामक गुणको लीजिये। यदि इस गुणका आधिक्य हो जाय, तो वह क्रूरता या दुस्साहस बन जाता है। यदि कमी हो जाय, तो वह कायरता कहलाती है। क्रूरता और कायरता दो अतिकी मनस्थितियाँ हैं। हमें चाहिये कि विवेकसे इनकी मध्य स्थिति ग्रहण करें।

अरस्तूने जिस गुणके ऊपर सबसे अधिक जोर दिया है, वह है-Stateliness (गौरव या महत्त्व)। अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा और स्थितिके अनुकूल ही मनुष्यके रहन-सहन और महत्त्वका प्रदर्शन होना चाहिये। जो जितना सम्पन्न है, वह उतनी ही सम्पन्नताका रहन-सहन रखे। यदि अपने पदके अनुसार वह रहन-सहन न रखे, तो वह उसका टुच्चापन कहा जायगा। यदि उससे अधिक मिथ्या वैभवको दिखलाये, तो वह उसका छिछोरापन कहलायेगा। यदि अपनी स्थिति, पद और वातावरणके अनुसार रहन-सहन रखा जाय तो यह उसका सद्गुण ही कहा जायगा और समाजमें उसकी यश-प्रतिष्ठा होगी। अब लीजिये, कोई व्यक्ति उच्च वर्गका है, ऊँचा वेतन पाता है, तो उसे वैसा ही रहन-सहन भी रखना चाहिये। उससे निम्न स्तर उचित नहीं है। इसके विपरीत जो व्यक्ति साधारण स्थितिके होकर बाहरी मिथ्या प्रदर्शन करते हैं वे अपनी और समाजकी बड़ी क्षति करते हैं।

तर्क एक अच्छा गुण है। जो ठीक तरह तर्क कर सकता है, वह वितण्डवादसे मुक्त रह सकता है, हानिकर रूढ़ियोंसे अपनी रक्षा कर सकता है। अन्धविश्वास श्रम, पाखण्डमें सफाई पेश कर सकता है। पर यदि यही गुण अतिकी सीमापर पहुँच जाय, तो कुतर्क हो जाता है। कुतर्क करनेवाला उचित-अनुचितका विवेक न कर समय-असमय फजूलकी बहस करने लगता है और बकवासी या झक्की कहलाता है। यदि इस गुणकी कमी हो जाय, तो लोग उसे भोंदू और बुद्धिहीन कहने लगते हैं। नियत मर्यादाके भीतर रहनेसे यह तर्क बना रहता है और सत्यकी खोजमें लाभदायक होता है।

जो व्यक्ति केवल कल्पनाके ही महल बनाता रहता है, कार्य कुछ नहीं करता, उसे लोग शेखचिल्ली कहकर चिढ़ाते हैं। यह सत्य है कि उस व्यक्तिमें सोचने और नये-नये मनसूबे, नवीन योजनाएँ बनाने, बढ़-चढ़कर बातें बनानेके गुण हैं, पर बिना कार्यके वह व्यक्ति अव्यावहारिक और आलसी ही कहा जायगा। इसके विपरीत सारा दिन इधर-से-उधर फिरनेवाला, घरमें न बैठनेवाला, सारा दिन कार्य-ही-कार्य करनेवाला व्यक्ति भी अच्छा नहीं समझा जाता; क्योंकि उसे भले-बुरेका विचार करनेके लिये भी समय नहीं मिलता। कार्य और विचार दोंनोंका उचित समन्वय-मध्यस्थिति ही श्रेष्ठ मार्ग है। ऐसे ही व्यक्ति सफल होते देखे जाते हैं।

बातचीतके विषयमें भी यही नियम लागू होता है। व्यर्थ अधिक बातें करनेवालेको लोग बकवासी और चुलबुला कहते हैं। किसी मीटिंग या मित्रमण्डलीमें चुपचाप, गुमसुम बैठनेवाला मन्दबुद्धि या मूर्ख समझ लिया जाता है। मध्यका मार्ग ही समाजमें मनुष्यकी योग्यता, सामर्थ्य और सच्चे गौरवको प्रकट करनेवाला है। मध्यस्थितिमें ही सद्गुणका अस्तित्व है। अनुचित सीमा या मर्यादासे बाहर हो जाना ही मनुष्यका दुर्भाग्य है।

भगवान् बुद्धने धर्मका मध्यम मार्ग ग्रहण करनेका उपदेश दिया था। वास्तवमें समाज, कुल, परिस्थिति, काल इत्यादिको दृष्टिमें रखकर मर्यादाओंका पालन ही सर्वोत्तम मार्ग है।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

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